Umariya Dhokhe Me Khoye Diyo Re
(कबीर भजन - उमरिया धोखे में खोये दियो रे...)
यह भजन कबीर के अद्वितीय भक्तिभाव और जीवन के अनुभवों को सुंदरता से छाया हुआ है। भजन की शुरुआत उम्र के पांच वर्षों के भोले-भाले बच्चे से होती है, जो विश्वस्त होकर दुनिया को देखता है। समय के साथ उसका जीवन बदलता है और वह जवान हो जाता है।

तीस वर्ष की आयु में, मोहमय माया के कारण, वह अपने गाँव को छोड़कर विदेश जाता है। उसकी निर्णयक चुनौतियों ने उसे बहुत कुछ सीखने का अवसर दिया, लेकिन बाद में उसे अपनी भूमिका का आदान-प्रदान समझने में समय लगता है।
चालीस वर्ष की आयु में, उसे अपनी धार्मिकता और अंतरंग सुख-शांति की खोज में लगा रहता है। उसे अपनी मानवीय जिम्मेदारीयों का सामना करना पड़ता है, और उसे बूढ़ा होते हुए भी सत्य की खोज में लगा रहता है।
भजन का समापन उसकी साठ-सत्तर वर्ष की आयु में होता है, जब उसका शरीर सुधारता है, और वह वायु, पित्त, और कफ की संतुलितता में रहकर निर्मल दृष्टि प्राप्त करता है। उसका चेतना का अवधारणा करने का एक साधन है, जो उसे अनुभवी बनाता है और उसे शान्ति और सुख की प्राप्ति में मदद करता है।
इस भजन में कबीर ने जीवन की प्रक्रिया को अद्वितीयता और आध्यात्मिकता की दृष्टि से दर्शाया है, जिससे सुनने वालों को अच्छे और सत्यप्रिय जीवन की ओर प्रेरित किया जा सकता है।
धोखे में खोये दियो रे।
पांच बरस का भोला-भाला
बीस में जवान भयो।
तीस बरस में माया के कारण,
देश विदेश गयो। उमर सब ....
चालिस बरस अन्त अब लागे, बाढ़ै मोह गयो।
धन धाम पुत्र के कारण, निस दिन सोच भयो।।
बरस पचास कमर भई टेढ़ी, सोचत खाट परयो।
लड़का बहुरी बोलन लागे, बूढ़ा मर न गयो।।
बरस साठ-सत्तर के भीतर, केश सफेद भयो।
वात पित कफ घेर लियो है, नैनन निर बहो।
न हरि भक्ति न साधो की संगत,
न शुभ कर्म कियो।
कहै कबीर सुनो भाई साधो,
चोला छुट गयो।।